14 सितंबर 2014

′गांधी′ के पीछे का आम आदमी

हाल ही में जब अभिनेता और निदेशक रिचर्ड एटनबरो का निधन हुआ, तब उन्हें दी गई ज्यादातर श्रद्धांजलियों का फोकस उनकी
फिल्म गांधी पर था, मगर इनमें से केवल एक में उस अनूठे और अमूमन चर्चाओं से दूर रहने वाले शख्स का मामूली-सा जिक्र था, जिसने महात्मा के जीवन और संघर्ष को स्क्रीन पर उतारने के लिए एटनबरो को राजी किया था। इस ′अनजाने भारतीय′ का नाम था मोतीलाल कोठारी। लंदन में बस चुके गुजराती मूल के मोतीलाल भारतीय उच्चायोग के स्टाफ में शामिल थे। 1950 के दशक के आखिरी दौर में जब हृदय संबंधी रोग ने उन्हें घेर लिया, तब, उन्हीं के शब्दों में ′मैंने मानवता के हित में काम करने का फैसला किया।′ तब उन्होंने सोचा कि अहिंसा का गांधी का जो सिद्धांत पूरी दुनिया में गूंज रहा है, क्यों न उस पर फीचर फिल्म बनाई जाए? अक्तूबर, 1961 में कोठारी महात्मा के जीवनी लेखक लुइस फिशर से मिले। फिशर ने बेहद उदारता से अपनी किताब पर फिल्म बनाने की उन्हें मंजूरी दी, और कहा कि इसके लिए वह एक पैसा नहीं लेंगे। जुलाई, 1962 में कोठारी ने रिचर्ड एटनबरो के सामने फिल्म का निर्देशक बनने का प्रस्ताव रखा, और फरवरी, 1963 में एटनबरो इसके लिए तैयार हो गए। कोठारी के कहने पर ही एटनबरो ने लॉर्ड माउंटबेटन से आग्रह किया कि वह इस मामले में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से बात करें। चूंकि नेक इरादे से फिल्म बनाई जा रही थी, इसलिए नेहरू ने इस परियोजना को मंजूरी दे दी।
नवंबर 1963 में कोठारी और एटरबरो ने नेहरू से मुलाकात की, और उन्हें गेराल्ड हेनले द्वारा तैयार स्क्रिप्ट दिखाई। इसके बाद विशेषज्ञों की सलाह से इसमें कुछ बदलाव भी किए गए। इस परियोजना के लिए इंडो-ब्रिटिश फिल्म्स लिमिटेड नाम से एक कंपनी बनाई गई, एटनबरो और कोठारी जिसके निदेशक बने। ये सारी जानकारियां मोतीलाल कोठारी के एक अप्रकाशित लेख में दर्ज हैं। यह लेख मुझे गांधी जी के नजदीकी रहे दासता विरोधी कार्यकर्ता हॉरेस एलेक्जेंडर के दस्तावेजों से मिला। दरअसल एलेक्जेंडर ही वह शख्स थे, जिन्होंने कोठारी और एटनबरो की मीरा बेन (मूल नाम मैडेलिन स्लेड) से मुलाकात कराई थी। मीरा बेन गांधी जी की दत्तक पुत्री थीं, और उस वक्त स्विट्जरलैंड मंन रिटायरमेंट जैसी जिंदगी बिता रही थीं। गांधी जी को उनसे बेहतर समझने वाला शायद ही कोई हो, इसी वजह से फिल्म को गहराई देने के लिए उनसे संपर्क किया गया था।
लंदन के सेवॉय होटल में 19 दिसंबर, 1964 को एक प्रेस कांफ्रेंस आयोजित की गई, जिसमें कोठारी और एटनबरो अपनी योजना के साथ सबसे रूबरू हुए। वहां कोठारी ने गांधी को सदी के अकेले ऐसे शख्स के तौर पर याद किया, ′जिसने निजी अनुभवों के जरिये अपनी जिंदगी का ऐसा आदर्श प्रस्तुत किया, जो वर्तमान में विश्व की सारी समस्याओं के समाधान की उम्मीद जगाता है′। फिल्म के निदेशक के तौर पर एटनबरो के नाम की घोषणा करते हुए कोठारी ने कहा, ′अपनी कहानी को दिखाने में अगर हम थोड़े भी कामयाब होते हैं, तो यह इस अनूठे व्यक्ति की विनम्रता, दयालुता, उत्साह और बुद्धिमानी का ही नतीजा होगा। मुझे भरोसा है कि पूरी दुनिया में जब लोग यह फिल्म देखकर सिनेमा हॉल से बाहर निकलेंगे, तो वे महसूस करेंगे कि एक मनुष्य होना कितना अच्छा है, और एक बेहतर इंसान बनने की कोशिश करते रहना कितना अद्भुत हो सकता है।′
यह टिप्पणी 1964 में की गई थी। एटनबरो की गांधी उसके अट्ठारह साल बाद आई। आखिर इतना समय लगने की क्या वजह थी? पहली समस्या तो फंडिंग की थी, क्योंकि मेट्रो-गोल्डविन-मेयर कंपनी फिल्म में पैसा लगाने के अपने फैसले से बाद में पीछे हट गई थी। दूसरी समस्या अच्छे पटकथा लेखक की खोज की थी। कोठारी की पसंद रॉबर्ट बोल्ट थे, जिन्होंने थॉमस मूर पर एक बेहतरीन ड्रामा लिखा था। बकौल कोठारी, ′थॉमस मूर को जानना जहां हर युग के लिए दिलचस्प था, वहीं गांधी को समझना पूरी मानवता के हित में था।′ इसके बाद बोल्ट ने फिल्म के लिए लिखने की शुरुआत तो की, लेकिन कुछ समय के बाद उन्होंने आगे लिखने से इनकार कर दिया। फिल्म में देरी की तीसरी वजह भी थी। दरअसल कोठारी और एटनबरो में कुछ मतभेद हो गए थे, जिनकी वजह किसी को नहीं पता। फिर कोठारी ने डेविड लीन से फिल्म का निर्देशन करने को कहा। इस दौरान उन्होंने 1965 और 1968 में भारत की यात्रा कर नेहरू के उत्तराधिकारियों लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी से मुलाकात भी की। कोठारी ने इनसे परियोजना में मदद देने का निवेदन भी किया।
पहले मोतीलाल कोठारी को उम्मीद थी कि 1969 में गांधी जी की जन्म शताब्दी तक फिल्म बनकर तैयार हो जाएगी। मगर ऐसा नहीं हो सका। 1970 में दिल का दौरा पड़ने से कोठारी की मृत्यु हो गई। उसके बाद डेविड लीन की फिल्म में कोई रुचि बची नहीं। पर सौभाग्य से एटनबरो अब भी फिल्म बनाना चाहते थे। कोठारी की स्मृति और दूसरे लोगों (महान सितार वादक रवि शंकर भी शामिल) की प्रेरणा से उन्होंने भारत, इंग्लैंड और अमेरिका से पैसा इकट्ठा करना शुरू किया। अपनी किताब इन सर्च ऑफ गांधी में उन्होंने कोठारी के प्रति अपनी कृतज्ञता जाहिर की थी। यह फिल्म जिन लोगों को समर्पित थी, उनमें मोतीलाल कोठारी, नेहरू और माउंटबेटन थे।
भले ही फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर कामयाबी के झंडे गाड़ने के साथ आठ ऑस्कर भी अपनी झोली में डाले हों, मगर एटनबरो की गांधी को लेकर आलोचकों की प्रतिक्रिया मिली-जुली ही रही थी। कुछ का मानना था कि यह फिल्म महात्मा और उनके संदेश को अच्छी तरह पेश करती है। वहीं दूसरों की नजर में फिल्म बेहद आदर्शात्मक थी, जिसमें सुभाष चंद्र बोस और अंबेडकर जैसे महत्वपूर्ण चरित्रों को शामिल ही नहीं किया गया, और जिन्ना का मजाक बनाकर रख दिया गया। पटकथाकार को लिखे एक पत्र में मोतीलाल कोठारी ने गांधी के काम के तीन आयामों को उभारने का निर्देश दिया था, गरीबों को लेकर उनकी चिंता, अन्याय के खिलाफ उनका संघर्ष और दूसरों को कुछ करने के लिए कहने से पहले खुद को उस कसौटी पर कसने के लिए उनका संकल्प। कोठारी के शब्दों में, ′आज हमारे सामने वही हालात हैं, जो महात्मा गांधी के समय थे। दर्द (खासकर गरीबी) से कराहती मानवता, भारत या दुनिया में कहीं भी जाति व्यवस्था से उपजा वर्ग संघर्ष, रंगभेद और धार्मिक कट्टरता, और सबसे महत्वपूर्ण युद्ध व हिंसा को बढ़ावा देने वाली राष्ट्रीय और वैचारिक प्रतिद्वंद्विता हर ओर दिखती है।′ 1964 में कहे गए ये शब्द पचास वर्ष बाद भी प्रासंगिक बने हुए हैं। रही बात मोतीलाल कोठारी की प्रेरणा से शुरू होने वाली रिचर्ड एटनबरो की गांधी की, तो वह आज भी दुनिया भर के स्कूलों और घरों में देखी जाती है और चर्चा का विषय बनती है।

- रामचंद्र गुहा (जाने-माने लेखक और इतिहासकार)
अमर उजाला, ‘देशकाल’, पृष्ठ-12, दिनांक 14 सितंबर, 2014 से साभार

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