हमारे यहां हिंदी भाषा में हो रहे नए-नए प्रयोगों और बदलावों को लेकर अकसर बहस चलती रहती है। हिंदी के तथाकथित बुद्धिजीवी और जानकार फिल्मों और मनोरंजन के हिंदी को समृद्ध बनाने के क्षेत्र में किए जा रहे योगदान को कम करके आंकते हैं। ऐसे लोग मनोरंजन की हिंदी को कोसते हैं और कहते हैं कि इससे हिंदी भाषा खराब हो रही है। यह गलत है। मुझे लगता है कि मनोरंजन की भाषा को एक अलग कमरे में कैद करके रखना और साहित्य की भाषा को दूसरे कमरे में रखने से भाषा का कोई भला नहीं हो सकता।
हिंदी में अगर आप आंचलिक और क्षेत्रीय भाषाओं के शब्दों और प्रयोगों को जगह नहीं देंगे, तो हिंदी का भला नहीं हो सकता। हिंदी के मूल स्वरूप को बचाकर रखा जाए, लेकिन साथ ही नए शब्दों
और प्रयोगों का भी स्वागत किया जाए। कोई भी भाषा तब ही समृद्ध होती है, जब वह दूसरों के लिए अपने दिल के द्वार खोलती है, वरना वह पिछड़ जाती है। यहां हम अंग्रेजी और संस्कृत भाषा का उदाहरण ले सकते हैं। अंग्रेजी में नित नए शब्दों और प्रयोगों को शामिल किया गया है, लेकिन संस्कृत अपने व्याकरण के कठोर नियमों और शब्दावली को पकड़े बैठे रही। नतीजा यह हुआ कि संस्कृत ज्यादा-से-ज्यादा लोगों तक अपनी पहुंच बनाने में सफल नहीं हो पाई। कोई भी भाषा तभी पनपेगी, जब वह आम लोगों के बीच रहेगी, उनके बीच पैठ बनाएगी।
वक्त बदलने के साथ-साथ इंसान अलग-अलग तरह की संवेदना और भावों का अनुभव करता है। आज की पीढ़ी कुछ ऐसी संवेदनाओं और भावों को महसूस कर सकती है, जो दो तीन पीढ़ी पहले के लोग नहीं करते थे। आज हम इंटरनेट के युग में जी रहे हैं और इस युग ने कई तरह के नए नए अहसासों को जन्म दिया है। अब ऐसे में उन भावों को जताने के लिए उसके पास शब्द होने चाहिए और अगर इसके लिए बाहर के कुछ शब्द हिंदी में आ रहे हैं, तो ऐतराज क्यों/ उन नए अहसासों को जताने के लिए जाहिर है हमें नए शब्दों की जरूरत तो होगी ही। यहां यह हठ करना कि नए शब्द भाषा को खराब कर देंगे, गलत है। यह भाषा की जिम्मेदारी भी है और उसकी समृद्धि भी कि वह इंसान के हर भाव, हर संवेदना को व्यक्त करने के लिए शब्द मुहैया करा सके। अगर हमारे पास महीन से महीन भावों को व्यक्त करने के लिए शब्द मौजूद हैं, तभी भाषा अच्छी कही जा सकती है।
इसमें कोई दोराय नहीं है कि भाषा के डीएनए को हमें हमेशा बचाकर रखना चाहिए। यह पवित्र होता है, लेकिन साथ के साथ वह कैसे फैले, कैसे और ज्यादा समृद्ध हो, इसके लिए हमें उदार होने की जरूरत है। वह अगर वक्त के साथ खुद को परिवर्तित करना चाहती है, तो उन परिवर्तनों का भी स्वागत होना चाहिए। अगर आप यह मानकर चल रहे हैं कि मनोरंजन जगत की भाषा हिंदी को खराब कर रही है तो इसका मतलब यह है कि आपको सचाई का पता ही नहीं है। आप आंख मूंदे बैठे हैं। मनोरंजन की भाषा को कैसे अच्छा बनाएं, फिल्मों में स्तरीय लेखन कैसे हो, कैसे बेहतर गीत लिखे जाएं, ऐसे तमाम विषयों पर चिंतन और बहस करने की गुंजाइश हमेशा है। हमें चाहिए कि भाषा की बेहतरी के लिए किए जाने चिंतन-मनन के काम में फिल्म जगत से जुड़े लोगों को भी शामिल किया जाए।
जो हिंदी गुजरात में बोली जाती है, वह भी हिंदी ही है, जो हिंदी महाराष्ट्र में बोली जाती है, वह भी हिंदी है। हो सकता है दक्षिण भारत का रहने वाला कोई शख्स हिंदी के लिए अच्छा काम कर रहा हो, लेकिन उसे हम इसलिए तो नहीं नकार सकते कि वह शुद्ध हिंदी नहीं बोलता। मेरा मानना है कि किसी खास वर्ग के प्रयास से हिंदी की बेहतरी नहीं होने वाली। इस खास वर्ग के लोग यह मानकर न चलें कि हिंदी का भविष्य क्या हो, इसका फैसला वे करेंगे या वे देख लेंगे। हिंदी का फैसला वे नहीं ले सकते, हिंदी के भविष्य का फैसला सभ्यता लेगी। भाषा हमसे अलग नहीं है, वह हमीं से घटती और बढ़ती है। अगर भाषा अड़ जाएगी तो सड़ जाएगी। मैं यह नहीं कहता कि नित नए परिवर्तनों को ज्यों-का-त्यों स्वीकार कर लिया जाए, मेरी आपत्ति बस अड़ने को लेकर है। नए बदलावों पर बहस करें, जिद न करें। जहां तक मेरा सवाल है तो मैं अपना काम करता रहूंगा और हिंदी को मुट्ठी भर लोगों की जिद का शिकार नहीं होने दूंगा।
(एनबीटी, 21 सितंबर, 2014 से साभार)
हिंदी में अगर आप आंचलिक और क्षेत्रीय भाषाओं के शब्दों और प्रयोगों को जगह नहीं देंगे, तो हिंदी का भला नहीं हो सकता। हिंदी के मूल स्वरूप को बचाकर रखा जाए, लेकिन साथ ही नए शब्दों
और प्रयोगों का भी स्वागत किया जाए। कोई भी भाषा तब ही समृद्ध होती है, जब वह दूसरों के लिए अपने दिल के द्वार खोलती है, वरना वह पिछड़ जाती है। यहां हम अंग्रेजी और संस्कृत भाषा का उदाहरण ले सकते हैं। अंग्रेजी में नित नए शब्दों और प्रयोगों को शामिल किया गया है, लेकिन संस्कृत अपने व्याकरण के कठोर नियमों और शब्दावली को पकड़े बैठे रही। नतीजा यह हुआ कि संस्कृत ज्यादा-से-ज्यादा लोगों तक अपनी पहुंच बनाने में सफल नहीं हो पाई। कोई भी भाषा तभी पनपेगी, जब वह आम लोगों के बीच रहेगी, उनके बीच पैठ बनाएगी।
वक्त बदलने के साथ-साथ इंसान अलग-अलग तरह की संवेदना और भावों का अनुभव करता है। आज की पीढ़ी कुछ ऐसी संवेदनाओं और भावों को महसूस कर सकती है, जो दो तीन पीढ़ी पहले के लोग नहीं करते थे। आज हम इंटरनेट के युग में जी रहे हैं और इस युग ने कई तरह के नए नए अहसासों को जन्म दिया है। अब ऐसे में उन भावों को जताने के लिए उसके पास शब्द होने चाहिए और अगर इसके लिए बाहर के कुछ शब्द हिंदी में आ रहे हैं, तो ऐतराज क्यों/ उन नए अहसासों को जताने के लिए जाहिर है हमें नए शब्दों की जरूरत तो होगी ही। यहां यह हठ करना कि नए शब्द भाषा को खराब कर देंगे, गलत है। यह भाषा की जिम्मेदारी भी है और उसकी समृद्धि भी कि वह इंसान के हर भाव, हर संवेदना को व्यक्त करने के लिए शब्द मुहैया करा सके। अगर हमारे पास महीन से महीन भावों को व्यक्त करने के लिए शब्द मौजूद हैं, तभी भाषा अच्छी कही जा सकती है।
इसमें कोई दोराय नहीं है कि भाषा के डीएनए को हमें हमेशा बचाकर रखना चाहिए। यह पवित्र होता है, लेकिन साथ के साथ वह कैसे फैले, कैसे और ज्यादा समृद्ध हो, इसके लिए हमें उदार होने की जरूरत है। वह अगर वक्त के साथ खुद को परिवर्तित करना चाहती है, तो उन परिवर्तनों का भी स्वागत होना चाहिए। अगर आप यह मानकर चल रहे हैं कि मनोरंजन जगत की भाषा हिंदी को खराब कर रही है तो इसका मतलब यह है कि आपको सचाई का पता ही नहीं है। आप आंख मूंदे बैठे हैं। मनोरंजन की भाषा को कैसे अच्छा बनाएं, फिल्मों में स्तरीय लेखन कैसे हो, कैसे बेहतर गीत लिखे जाएं, ऐसे तमाम विषयों पर चिंतन और बहस करने की गुंजाइश हमेशा है। हमें चाहिए कि भाषा की बेहतरी के लिए किए जाने चिंतन-मनन के काम में फिल्म जगत से जुड़े लोगों को भी शामिल किया जाए।
जो हिंदी गुजरात में बोली जाती है, वह भी हिंदी ही है, जो हिंदी महाराष्ट्र में बोली जाती है, वह भी हिंदी है। हो सकता है दक्षिण भारत का रहने वाला कोई शख्स हिंदी के लिए अच्छा काम कर रहा हो, लेकिन उसे हम इसलिए तो नहीं नकार सकते कि वह शुद्ध हिंदी नहीं बोलता। मेरा मानना है कि किसी खास वर्ग के प्रयास से हिंदी की बेहतरी नहीं होने वाली। इस खास वर्ग के लोग यह मानकर न चलें कि हिंदी का भविष्य क्या हो, इसका फैसला वे करेंगे या वे देख लेंगे। हिंदी का फैसला वे नहीं ले सकते, हिंदी के भविष्य का फैसला सभ्यता लेगी। भाषा हमसे अलग नहीं है, वह हमीं से घटती और बढ़ती है। अगर भाषा अड़ जाएगी तो सड़ जाएगी। मैं यह नहीं कहता कि नित नए परिवर्तनों को ज्यों-का-त्यों स्वीकार कर लिया जाए, मेरी आपत्ति बस अड़ने को लेकर है। नए बदलावों पर बहस करें, जिद न करें। जहां तक मेरा सवाल है तो मैं अपना काम करता रहूंगा और हिंदी को मुट्ठी भर लोगों की जिद का शिकार नहीं होने दूंगा।
- प्रसून जोशी
मशहूर गीतकार और ऐड गुरु(एनबीटी, 21 सितंबर, 2014 से साभार)
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